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Ncert Class 12th Indian History Notes – किसान और कृषि उत्पादन
● खेतिहर समाज की बुनियादी इकाई गाँव थी जिसमें किसान रहते थे।
किसान साल भर अलग-अलग मौसम में वो सारे काम करते थे, जिससे फसल की पैदावार होती थी।
● इसके अलावा वे उन वस्तुओं के उत्पादन में भी शामिल होते थे जो कृषि आधारित थी जैसे कि शक्कर, तेल इत्यादि। मैदानी हिस्सों के अलावा पहाड़ियों से भरे और जंगलों से घिरे खेत भी थे। हमें इन कृषि समाजों के बारे में भी ध्यान रखना होगा।
स्रोतों का तलाश
● चूँकि किसान अपने बारे में खुद नहीं लिखा करते थे इसलिए स्वयं उनके द्वारा लिखी कोई जानकारी हमें नहीं मिलती। इसलिए हमारे मुख्य स्रोत वे ऐतिहासिक ग्रंथ व दस्तावेज है जो मुगल दरबार की देख-रेख में लिखे गए थे।
आइन-ए-अकबरी
● सबसे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों में एक था- आइन-ए-अकबरी, जिसे अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा था।
● आइन-ए-अकबरी का मुख्य उद्देश्य अकबर के साम्राज्य का ऐसा चित्रण प्रस्तुत करना था जहाँ एक मजबूत सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल-जोल बनाकर रखता था। किसानों के बारे में जो कुछ हमें आइन-ए-अकबरीसे पता चलता है वह सत्ता के ऊँचे गलियारों का नजरिया है।
अन्य स्रोत
● आइन-ए-अकबरी की जानकारी के साथ-साथ हम उन स्रोतों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं, जो मुगलों की राजधानी से दूर के इलाकों में लिखे गए थे। इनमें सत्रहवीं व अठारहवीं सदियों के गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से मिलने वाले वे दस्तावेज शामिल हैं जो सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं।
● इसके अलावा ईस्ट-इंडिया कंपनी के बहुत सारे दस्तावेज भी हैं जो पूर्वी भारत में कृषि-सम्बन्धों का उपयोगी खाका खींचते है। साथ ही ये स्रोत यह समझने में हमारी मदद करते हैं कि किसान राज्य को किस नजरिए से देखते थे और राज्य से उन्हें कैसे न्याय की उम्मीद थी।
किसान और उनकी जमीन
● मुगलकाल में भारतीय किसान को फारसी भाषा में आमतौर पर रैयत (बहुवचन, रिआया) या मुजरियान कहते थे। साथ ही किसान या आसामी जैसे शब्द भी मिलते हैं।
● सत्रहवीं सदी के स्रोत हमें दो प्रकार के किसानों के बारे में बताते हैं- खुद काश्त और पाहि-काश्त। पहले किस्म के किसान वे थे जो उन्हीं गाँवों में रहते थे जिनमें उनकी जमीन थी। दूसरे पाहि-काश्त वे खेतिहर थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे। खेती व्यक्तिगत संपत्ति के सिद्धांत पर आधारित थी।
सिंचाई और तकनीक
● जमीन की बहुतायत, मजदूरों की मौजूदगी और किसानों की गतिशीलता की वजह से कृषि का लगातार विस्तार हुआ। खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था, इसलिए रोजमर्रा के खाने की जरूरतें जैसे-चावल, गेहूँ, ज्वार इत्यादि फसलें सबसे अधिक उगाई जाती थी।
● भारत की कृषि की रीढ़ मानसून था लेकिन कुछ फसलें ऐसी भी थी जिनके लिए अतिरिक्त पानी की जरूरत थी। इनके लिए सिंचाई के कृत्रिम उपाय बनाने पड़े। लोग बाल्टियों या रहट के माध्यम से सिंचाई करते थे।
● किसान पशुबल पर आधारित तकनीकी का प्रयोग करते थे। सिंचाई कार्यों को राज्य की मदद भी मिलती थी। उदाहरणत: उत्तर भारत में राज्य ने कई नहरें व नाले खुदवाए और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई, जैसे कि शाहजहाँ के शासन काल में पंजाब में शाह नहर।
फसलों की भरमार
● आइन-ए-अकबरी हमें बताती है कि दोनों मौसम मिलाकर, मुगल प्रांत आगरा में 39 किस्म की फसलें उगाई जाती थी। जबकि दिल्ली प्रांत में 43 फसलों की पैदावार होती थी। बंगाल में केवल चावल की 50 किस्में पैदा होती थी।
● मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी। एक खरीफ (पतझड़ में) और दूसरी रबी (वसंत में) कुछ सूखे इलाकों और बंजर जमीन को छोड़ दे तो ज्यादातर जगहों पर साल में कम-से कम दो फसलें होती थी, सिंचाई के साधन उपलब्ध होने पर तो तीन फसलें भी उगाई जाती थी।
● दैनिक आहार के साथ-साथ व्यापारिक फसलें भी उगाई जाती थी। स्रोतों में हमें जिन्स-ए-कामिल (सर्वोत्तम फसलें) जैसे शब्द मिलते हैं। कपास और गन्नें जैसी फसलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थी। तिलहन और दलहन भी नकदी फसलों में आती थी।
ग्रामीण समुदाय
● हम पूर्व में पढ़ चुके हैं कि किसान की अपनी जमीन पर निजी मिल्कियत (अधिकार) होती थी।
● साथ ही जहाँ तक उनके सामाजिक अस्तित्व का सवाल है, कई प्रकार से वे एक सामूहिक ग्रामीण समुदाय का हिस्सा थे। इस समुदाय के तीन घटक थे- खेतिहर किसान, पंचायत और गाँव का मुखिया (मुकदम या मंडल)।
● हम इन समूहों पर नजर डालेंगे जो खेती के विस्तार में शामिल होते थे। साथ ही हम उनके बीच के रिश्तों और झगड़ों पर भी गौर करेंगे।
जाति और ग्रामीण माहौल
● जाति और अन्य जाति जैसे भेदभावों की वजह से खेतिहर किसान कई तरह के समूह में बँटे थे। खेती की जुताई करने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जो निम्न समझे जाने वाले कामों में लगे थे, या फिर खेतों में मजदूरी करते थे।
● हालाँकि खेती लायक जमीन की कमी नहीं थी, फिर भी कुछ जाति के लोगों को सिर्फ नीचे समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे। इस तरह वे गरीब रहने के लिए मजबूर थे।
● गाँव की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे ही समूहों का था। इनके पास संसाधन सबसे कम थे और ये जाति व्यवस्था की पाबंदियों से बंधे थे। दूसरे संप्रदायों में भी ऐसे भेदभाव फैलने लगे थे। मुसलमान समदुायों में हलालखोरान जैसे ‘नीच’ कामों से जुड़े समूह गाँव की हदों के बाहर ही रह सकते थे, इसी तरह बिहार में मल्लाहजादाओं (शाब्दिक अर्थ – नाविकों के पुत्र) की तुलना दासों से की जा सकती थी।
पंचायतें और मुखिया
● गाँव की पंचायत में बुजुर्गो का जमावड़ा होता था। आमतौर पर वे गाँव के महत्त्वपूर्ण लोग हुआ करते थे जिनके पास अपनी संपत्ति के पुश्तैनी अधिकार होते थे।
● जिन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे, वहाँ अकसर पंचायत में भी विविधता पाई जाती थी, लेकिन इसकी संभावना कम ही है कि छोटे-मोटे और ‘नीच’ काम करने वाले मजदूरों के लिए इसमें कोई स्थान होगा। पंचायत का फैसला गाँव में सबकों मानना पड़ता था।
● पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुकदम या मंडल कहते थे। गाँव के आमदनी व खर्च का हिसाब किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था।
● पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम खजाने से चलता था जिसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था। इस कोष का प्रयोग बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए भी होता था।
● पंचायत का एक बड़ा काम यह तसल्ली करना था कि गाँव में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के लोग अपनी जाति की हदों के अंदर रहे। पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे ज्यादा गंभीर दंड देने के अधिकार भी थे।
● ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर जाति की अपनी पंचायत होती थी। समाज में ये पंचायतें काफी ताकतवर होती थी। फौजदारी न्याय को छोड़कर ज्यादातर मामलों में राज्य जाति पंचायत के फैसलों को मानता था।
ग्रामीण दस्तकार
● अलग-अलग तरह के उत्पादन कार्य में जुटे लोगों के बीच फैले लेन-देन के रिश्ते गाँव का एक और रोचक पहलू था। अंग्रेजी शासन के शुरुआती वर्षों के लिए किए गए गाँवों के सर्वेक्षण और मराठाओं के दस्तावेज से पता चलता है कि गाँवों में दस्तकार काफी संख्या में रहते थे। कहीं कहीं तो कुल घरों के 25% घर दस्तकारों के थे।
● कई ऐसे समूह भी थे जो दोनों किस्म के काम करते थे अर्थात् खेती और दस्तकारी दोनों ही। खेतिहर और उसके परिवार के सदस्य कई तरह की वस्तुओं के उत्पादन में भाग लेते थे। जैसे- रँगरेजी, कपड़े पर छपाई, मिट्टी के बर्तनों को पकाना, खेती के औजारों को बनाना या उनकी मरम्मत करना, ये कार्य उन महीनों में किए जाते थे जब उनके पास खेती के काम से फुरसत होती थी।
● कुम्हार, लोहार, बढ़ई, नाई यहाँ तक कि सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार भी अपनी सेवाएँ गाँव के लोगों को देते थे जिसके बदले गाँव वाले उन्हें अलग-अलग तरीकों से उनके बदले पुन:भरण करते थे।
● आमतौर पर वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय होता था और ऐसा भी नहीं है कि नकद का चलन बिल्कुल ही ना हो।
एक “छोटा गणराज्य”?
● उन्नीसवीं सदी के कुछ अंग्रेज अफसरों ने भारतीय गाँवों को एक ऐसे ‘छोटे गणराज्य’ के रूप में देखा जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों और श्रम बँटवारा करते थे। लेकिन ऐसा नहीं लगता था कि गाँव में सामाजिक बराबरी थी।
● संपत्ति की व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी, साथ ही जाति और जेंडर (सामाजिक लिंग) के नाम पर समाज में गहरी असमानताएँ थी। कुछ ताकतवर लोग गाँव के समस्त मसलों पर फैसले लेते थे और कमजोर वर्गों का शोषण करते थे। न्याय करने का अधिकार भी उन्हीं को मिला हुआ था। गाँवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार की वजह से गाँवों में भी नकद के रिश्ते फैल चुके थे।
कृषि समाज में महिलाएँ
● उत्पादन की प्रक्रिया में मर्द और महिलाओं विशेष भूमिकाएँ निभाते हैं। जिस संदर्भ में इस पाठ में बात की जा रही है वहाँ महिलाएँ और पुरुष कंधे-से-कंधा मिलाकर खेतों में काम करते थे। पुरुष खेत जोतते थे व हल चलाते थे और महिलाएँ बुआई, निराई, कटाई के साथ-साथ पकी हुई फसल का दाना निकालने का काम करती थी।
● जब छोटी-छोटी ग्रामीण इकाइयों का और किसान की व्यक्तिगत खेती का विकास हुआ तब घर परिवार के संसाधन और श्रम, उत्पादन की बुनियाद बने। ऐेसे में महिलाएँ केवल घर में और पुरुष केवल बाहर जैसा कार्य विभाजन संभव नहीं था। फिर भी महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान हल या चाक छूने की इजाजत नहीं थी और ना ही पान के बागान में घुसने की।
● सूत कातने, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करने और गूँधने और कपड़ों पर कढ़ाई जैसे दस्तकारी के काम उत्पादन के ऐसे पहलू थे जो महिलाओ के श्रम पर आधारित थे। किसी वस्तु का जितना वाणिज्यीकरण होता था, उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की उतनी ही माँग होती थी।
● चूँकि समाज श्रम पर निर्भर था, इसलिए प्रजनन की अपनी क्षमता की वजह से महिलाओं को महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था फिर भी कुपोषण और प्रसव के समय मौत की वजह से महिलाओं में मृत्यु दर बहुत अधिक थी। इससे किसान और दस्तकार समाज में ऐसे सामाजिक रिवाज उत्पन्न हुए जो संभ्रांत समूहों से बहुत अलग थे। कई ग्रामीण संप्रदायों में विवाह के लिए ‘दुल्हन की कीमत’ देनी पड़ती थी, न कि दहेज। तलाकशुदा और विधवा, दोनों ही कानून विवाह कर सकती थी। भूमिहर भद्रजनों में महिलाओं को पुश्तैनी संपत्ति का अधिकार मिला हुआ था।
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