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अगर आप UPSC परीक्षा की तैयारी  शुरू कर चुके हैं तो आपको पता होना चाहिए कि IAS / IPS के लिए सबसे महत्वपूर्ण NCERT Indian History कक्षा 6 से 12 तक होता है और अपना बेसिक क्लियर करने के लिए आपको एनसीईआरटी पढ़ना होगा इसलिए इस पोस्ट में हम आपको NCERT Indian History Notes For Upsc ( 3 ) भक्ति आंदोलन Part 1 के नोट्स उपलब्ध करवा रहे हैं जो आपको आगे बहुत ज्यादा काम आने वाले हैं

 NCERT Indian History Notes Pdf | Indian History Notes For Upsc ( 3 ) भक्ति आंदोलन से संबंधित सभी विषयों के नोट्स हम आपको टॉपिक अनुसार उपलब्ध करवा रहे हैं जिन्हें आप पीडीएफ के रूप में भी डाउनलोड कर सकते हैं

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Indian History Notes For Upsc ( 3 ) भक्ति आंदोलन

स्त्री भक्तों की स्वीकार्यता :-

·इस परंपरा की सबसे अच्छी बात इसमें स्त्रियों की उपस्थिति थी। उदाहरण के तौर पर अंडाल नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत व्यापक स्तर पर गाए जाते थे और अब भी गाए जाते है। अंडाल स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेम भावना को छंदों में व्यक्त करती थी। एक और स्त्री शिवभक्त करइक्काल अम्मइयार ने शिव की घोर तपस्या की । नयनार परंपरा में उसकी रचनाओं को सुरक्षित किया गया। इन स्त्रियों की जीवन पद्धति और इनकी रचनाओं में पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी।

राज्य के साथ सम्बन्ध :-

· तमिल क्षेत्र में प्रथम सहस्राब्दी ई. के आरंभ में कई महत्त्वपूर्ण सरदारियाँ थी। इसी सहस्राब्दी के उत्तरार्द्ध में राज्य का उद्भव और विकास हुआ जिसमें पल्लव और पांड्य राज्य (जो छठी से नवीं शताब्दी ई. में थे) शामिल थे।

· तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्ध और जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है। विरोध का स्वर नयनार संतों की रचनाओं में विशेष रूप से उभरकर आता है। इतिहासकारों ने इसे राजकीय अनुदान को लेकर प्रतिस्पर्धा माना। शक्तिशाली चोल सम्राटों ने ब्राह्मणीय और भक्ति परंपरा को समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि अनुदान दिए। चिदम्बरम, तंजावुर और कोंडचोलपुरम के विशाल शिव मंदिर चोल सम्राटों की मदद से ही निर्मित हुए। इसी काल में काँस्य में ढाली गई शिव की प्रतिमाओं का भी निर्माण हुआ।

कर्नाटक की वीरशैव परंपरा :-

· बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक में एक नवीन आंदोलन का उद्भव हुआ जिसका नेतृत्व बासवन्ना ( 1106-68) नामक एक ब्राह्मण ने किया बासवन्ना कलाचुरी राजा के दरबार में मंत्री थे। इनके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर) व लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए।

· लिंगायतों ने जाति की अवधारणा और कुछ समुदायों के ‘दूषित’ होने की ब्राह्मणीय अवधारणा का विरोध किया। धर्मशास्त्रों ने जिन आचारों को अस्वीकार किया था जैसे वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, लिंगायतों ने उन्हें मान्यता प्रदान की।

उत्तरी भारत में धार्मिक उफान :-

· इसी काल में उत्तरी भारत में विष्णु और शिव जैसे देवताओं की उपासना मंदिरों में की जाती थी जिन्हें शासकों की सहायता से निर्मित किया जाता था किंतु इतिहासकारों को अलवार और नयनार संतों की रचनाओं जैसा कोई ग्रंथ चौदहवीं शताब्दी तक उत्तरी भारत से प्राप्त नहीं हुआ।

· कुछ इतिहासकारों का मत है कि उत्तरी भारत में यह वह काल था जब अनेक राजपूत राज्यों का उद्भव हुआ। इन सभी राज्यों में ब्राह्मणों का महत्त्वपूर्ण स्थान था और वे ऐहिक तथा आनुष्ठानिक दोनों ही कार्य करते थे। इसी समय ने धार्मिक नेता जो रुढ़िवादी ब्राह्मणीय साँचे के बाहर थे, उनके प्रभाव में विस्तार हो रहा था ऐसे नेताओं में नाथ, जोगी और सिद्ध शामिल थे।

· अनेक धार्मिक नेताओं ने वेदों की सत्ता को चुनौती दी और अपने विचार आम लोगों की भाषा में सामने रखें लेकिन इन्हें विशिष्ट शासकों का प्रश्रय नहीं मिला।

· इसी दौरान एक नवीन तत्त्व भारत में तुर्कों का आगमन था जिसकी पराकाष्ठा दिल्ली सल्तनत की स्थापना में हुई (तेरहवीं शताब्दी में) संत की स्थापना से राजपूत राज्यों का और उनसे जुड़े ब्राह्मणों का पराभव हुआ। इन परिवर्तनों का प्रभाव संस्कृति और धर्म पर भी पड़ा। सूफियों का आगमन इन परिवर्तनों का एक महत्त्वपूर्ण अंग था।

दुशाले के नए ताने-बाने इस्लामी परंपराएँ :-

· प्रथम सहस्राब्दी ई. में अरब व्यापारी समुद्र के रास्ते पश्चिमी भारत के बंदरगाहों तक आए। इसी समय मध्य एशिया से लोग देश के उत्तर- पश्चिमी प्रांतों में आकर बस गए। सातवीं शताब्दी में इस्लाम के उद्भव के बाद ये क्षेत्र उस संसार का हिस्सा बन गए जिसे अकसर इस्लामी विश्व कहा जाता है।

शासकों और शासितों के धार्मिक विश्वास :-

· बहुत से क्षेत्रों में इस्लाम शासकों का स्वीकृत धर्म था। सैद्धान्तिक रूप से मुसलमान शासकों को उलमा के मार्गदर्शन पर चलना होता था । उलमा से यह उम्मीद की जाती थी कि वे प्रशासन में शरिया का पालन करवाएँगे। परंतु भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिति जटिल थी क्योंकि जनसंख्या का बड़ा भाग इस्लाम धर्म को नहीं मानता था। इस संदर्भ में जिम्मी अर्थात् संरक्षित श्रेणी का प्रादुर्भाव हुआ।

· जिम्मी वे लोग थे जो उद्घटित धर्म ग्रंथ को मानने वाले थे। वे सभी जजिया कर चुका कर मुसलमान शासकों का संरक्षण पाने के अधिकारी हो जाते थे। हिन्दू भी इसमें सम्मिलित कर लिए गए। वास्तव में शासक प्रजा की ओर काफी लचीली नीति अपनाते थे। जैसे बहुत से शासकों ने भूमि अनुदान व कर की छूट हिन्दू, जैन, फारसी, ईसाई और यहूदी धर्म संस्थाओं को दी तथा गैर-मुसलमान धार्मिक नेताओं के प्रति सम्मान व्यक्त किया। ऐसे अनुदान अकबर और औरंगजेब सहित अनेक मुगल बादशाहों ने दिए।

लोक प्रचलन में इस्लाम :-

· इस्लाम के आगमन के बाद जो परिवर्तन हुए वे शासक वर्ग तक ही सीमित नहीं थे, अपितु पूरे उपमहाद्वीप में दूरदराज तक और विभिन्न सामाजिक समुदायों – किसान, शिल्पी, योद्धा, व्यापारी के बीच फैल गए। जिन्होंने इस्लाम धर्म कुबूल किया उन्होंने सैद्धान्तिक रूप से इसकी पाँच मुख्य बातें मानी-

1. अल्लाह एकमात्र ईश्वर है।

2. पैगम्बर मोहम्मद उनके दूत (शाहद) है।

3. दिन में पाँच बार नमाज पढ़ी जानी चाहिए।

4. खैरात (जकात) बाँटनी चाहिए।

5. रमजान के महीने में रोजा रखना चाहिए और हज के लिए मक्का जाना चाहिए।

समुदायों के नाम :-

· जिन इतिहासकारों ने आठवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच के संस्कृत ग्रंथों और अभिलेखों का अध्ययन किया है, वे इस तथ्य को उजागर करते है कि इनमें मुसलमान शब्द का शायद ही कहीं प्रयोग हुआ हो। इसके विपरीत लोगों का वर्गीकरण उनके जन्म स्थान के आधार पर किया जाता था। इस तरह तुर्की मुसलमानों को तुरुष्क कहा गया। तजाकिस्तान से आए लोगों को ताजिक और फारस के लोगों को पारसीक नाम से संबोधित किया गया।

सूफी मत का विकास :-

· इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में धार्मिक और राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफत की बढ़ती विषय शक्ति के विरुद्ध कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद और वैराग्य की ओर झुकाव बढ़ा इन्हें सूफी कहा जाने लगा।

· उन्होंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया। उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को इंसान-ए-कामिल बताते हुए उनका अनुसरण करने की सीख दी। सूफियों ने कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की।

खानकाह और सिलसिला :-

· ग्यारहवीं शताब्दी तक आते-आते सूफीवाद एक पूर्ण विकसित आंदोलन था जिसका सूफी और कुरान से जुड़ा अपना साहित्य था। संस्थागत दृष्टि से सूफी अपने को एक संगठित समुदाय – खानकाह (फारसी) के इर्द-गिर्द स्थापित करते थे।

· खानकाह का नियंत्रण शेख (अरबी), पीर अथवा मुर्शीद (फारसी) के हाथ में था। वे अनुयायियों की भर्ती करते थे और अपने वारिस (खलीफा) की नियुक्ति करते थे।

· बारहवीं शताब्दी के आसपास इस्लामी दुनिया में सूफी सिलसिलों का गठन होने लगा। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है-जंजीर जो शेख और मुरीद के बीच एक निरंतर रिश्ते की द्योतक है, जिसकी पहली अटूट कड़ी पैगम्बर मोहम्मद से जुड़ी है। दीक्षा के विशिष्ट अनुष्ठान विकसित किए गए जिसमें दीक्षित को निष्ठा का वचन देना होता था।

· पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह उसके मुरीदी के लिए भक्ति का स्थान बन जाती थी। इस तरह पीर की दरगाह पर जियारत के लिए जाने की, खासतौर से उसकी बरसी के अवसर पर, परिपाटी चल निकली। इस परिपाटी को उर्स (विवाह, यानि पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा गया क्योंकि लोगों का मानना था कि मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से एकीभूत हो जाते हैं।

खानकाह के बाहर :-

· कुछ रहस्यवादियों ने सूफी सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या के आधार पर नवीन आंदोलनों की नींव रखी। खानकाह की उपेक्षा करके यह रहस्यवादी, फकीर की जिंदगी बिताते थे। निर्धनता और ब्रह्मचर्य को उन्होंने गौरव प्रदान किया।

· इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता था— कलंदर, मदारी, मलंग, हैदरी इत्यादि। ये शरिया की अवहेलना करते थे इसलिए इन्हें बे-शरिया कहा जाता था। इस तरह उन्हें शरिया का पालन करने वाले (बा- शरिया) सूफियों से अलग करके देखा जाता था।

उपमहाद्वीप में चिश्ती सिलसिला :-

चिश्ती खानकाह में जीवन:-

· बारहवीं शताब्दी के अंत में भारत आने वाले सूफी समुदायों में चिश्ती सबसे अधिक प्रभावशाली रहे। इसका कारण यह था कि उन्होंने न केवल अपने आपको स्थानीय परिवेश में अच्छी तरह ढाल लिया बल्कि भारतीय भक्ति परंपरा की कई विशिष्टताओं को भी अपनाया। खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था।

· शेख निजामुद्दीन औलिया का खानकाह दिल्ली शहर की बाहरी सीमा पर यमुना नदी के किनारे गयासपुर में थी जहाँ सहवासी और अतिथि रहते थे और उपासना प्रार्थना करते थे। यहाँ एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह (बिना माँगी खैर) पर चलती थी। यहाँ विभिन्न वर्गों के लोग जैसे सिपाही, गुलाम, गायक, व्यापारी, कवि, राहगीर, धनी और निर्धन, हिंदू जोगी, कलंदर आदि आते रहते थे। कुछ अन्य खास लोगों में अमीर हसन सिज्ज़ी और अमीर खुसरों जैसे कवि तथा दरबारी इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे। शेख निजामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया और भेजा।

चिश्ती उपासना : जियारत और कव्वाली :-

· सूफी संतों की दरगाह पर की गई जियारत सारे इस्लामी संसार में प्रचलित है। इस अवसर पर संत के आध्यात्मिक आशीर्वाद यानि बरकत की कामना की जाती है। सबसे अधिक पूजनीय दरगाह ख़्वाजा मोइनुद्दीन की है जिन्हें ‘गरीब नवाज’ कहा जाता है। मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) पहला सुल्तान था जो इस दरगाह पर आया था। शेख की मजार पर पहली इमारत मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खिलजी ने पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बनवाई।

· सोलहवीं शताब्दी तक अजमेर की यह दरगाह बहुत ही लोकप्रिय हो गई थी। अकबर यहाँ चौदह बार आया। कभी नई जीत के लिए आशीर्वाद लेने अथवा संकल्प की पूर्ति पर या फिर पुत्रों के जन्म पर। प्रत्येक यात्रा पर बादशाह दान भेंट दिया करते थे।

· नाच और संगीत भी जियारत का हिस्सा थे, खासतौर से कव्वालों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवादी गुणगान जिससे परमानंद की भावना को उभारा जा सके। सूफी संत जिक्र (ईश्वर का नाम जाप) या फिर सभा (सुनना) यानि आध्यात्मिक संगीत की महफिल के द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे।

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अंतिम शब्द

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